नैनबाग :

मेरे जीवन की शुरुआत बड़ी ही कठिन परिस्थितियों में हुई। जब मैं मात्र 14 साल का था, साल 2002 में, मुझे घर की गरीबी की वजह से नौकरी करने के लिए बाहर जाना पड़ा। मेरे पूज्य पिताजी मजदूरी करके 50 रुपये रोज़ कमाते थे और घर की जिम्मेदारियाँ बहुत थीं। मैं घर का बड़ा बेटा था, इसलिए घर की हालत सँभालने के लिए मुझे होटल में नौकरी करनी पड़ी, जहाँ मैं बर्तन धोता था और 300 रुपये महीना कमाता था। इन्हीं पैसों से थोड़ी-बहुत मदद मिल जाती थी और घर का गुज़ारा चलता था। कहते हैं न—डूबते को तिनके का सहारा।

समय बीतता गया और धीरे-धीरे मुझे काम में भी निपुणता आने लगी। मेरी तनख्वाह बढ़कर 1500 रुपये हुई तो घर की स्थिति भी थोड़ी सुधरी। मेरे दो छोटे भाई थे, उनकी पढ़ाई भी अब ठीक से चलने लगी। मैं भी पढ़ाई जारी रखता था। जब भी समय मिलता, बाज़ार से किताब-कॉपी लाकर खुद पढ़ाई करता और साल में एक बार प्राइवेट परीक्षा देने के लिए गाँव जाकर स्कूल में शामिल होता। नौकरी के साथ पढ़ाई न छोड़ना मेरे लिए एक ज़िद थी।

2002 से 2008 तक का समय मेरे जीवन का सबसे कठिन दौर रहा। लेकिन मेरे अंदर हिम्मत थी और भगवान का आशीर्वाद भी। मैंने हर मुश्किल का सामना डटकर किया। फिर 2008 में, जब मैं 18 साल का हुआ, बरेली (उत्तर प्रदेश) में ITBP की भर्ती निकली। उस समय मैं दिल्ली में नौकरी कर रहा था और लगभग 3500 रुपये कमा लेता था। मेरा सपना था कि मैं होटल लाइन में आगे बढ़ूँ, एक अच्छा शेफ बनूँ, पासपोर्ट बनवाकर विदेश जाऊँ और लाखों में कमाऊँ।

लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। मेरे ताऊजी के बेटे और मेरे बड़े भाई, जो PAC (उत्तर प्रदेश पुलिस) में कार्यरत थे, उन्होंने मुझे मुरादाबाद बुलाया और भर्ती में शामिल होने के लिए ज़ोर दिया। मैं ज़्यादा उत्साहित नहीं था क्योंकि कोई विशेष तैयारी भी नहीं की थी। फिर भी उनकी जिद के आगे मैं तैयार हो गया। पहली बार किसी भर्ती में गया था और सोच रहा था कि पहले ही राउंड में बाहर हो जाऊँगा।

लेकिन किस्मत ने साथ दिया और मैं एक ही बार में फौज की भर्ती में चयनित हो गया। मेरे लिए ये किसी सपने के सच होने जैसा था। मुझसे ज़्यादा खुश मेरे बड़े भाई थे, जिन्होंने मुझे प्रेरित किया। उनका मानना था कि एक बार सरकारी नौकरी लगने से पूरी ज़िंदगी बदल जाएगी—और सचमुच वैसा ही हुआ। भगवान की कृपा और बड़ों के आशीर्वाद से मेरी नौकरी लग गई। उस दिन मेरे माता-पिता और पूरे परिवार की खुशी का ठिकाना नहीं था।

इसके बाद मैंने अपने माता-पिता के हर सपने को पूरा किया। मेरी शादी हुई, बच्चे हुए, दोनों छोटे भाइयों की शादी और उनके बच्चे भी हुए। घर का माहौल खुशहाल था।

लेकिन किस्मत ने एक बार फिर करवट बदली। जब सब ठीक चल रहा था और मेरे माता-पिता खुश थे, तभी मेरे पिताजी हमें छोड़कर इस दुनिया से चले गए। उन्होंने बड़ी गरीबी में हमें पाला था और मैं चाहता था कि अब वो आराम करें, लेकिन मेरी किस्मत में इतना ही था कि उनकी सेवा थोड़ी ही कर पाया।

आज जब पिताजी नहीं हैं, तो यह धन-दौलत मुझे अधूरी लगती है। जब वो थे, तो मन में लगता था और मेहनत करूँ ताकि पापा खुश हों और मुझे शाबाशी दें। उनके जाने के बाद लगता है—अब किसे दिखाऊँ अपनी मेहनत और काबिलियत? पापा की याद बहुत आती है।

लेकिन ज़िंदगी रुकती नहीं। इंसान को दुनिया के साथ चलना पड़ता है, और मैं भी चल रहा हूँ। आगे क्या होगा—यह अब ऊपरवाले पर छोड़ दिया है।