टिहरी :– जौनपुर, संजय गुसाई की रिपोर्ट

टिहरी जिले के जौनपुर बिकासखण्ड के अनेकों गाँव में बूढी दीवाली का त्यौहार 13 से 15 दिसंबर तक धूमधाम से मनाया जाएगा! इस त्यौहार हो देहरादून के जौनसार -बाबर और उत्तरकाशी के रंवाई क्षेत्र में भी मनाया जाता है !  इस त्यौहार को मनाने के लिए सभी तैयारियां पूरी कर ली गई है गाँव की महिलाओं द्वारा अपने अपने घरों की साफ़ सफाई भी कर ली गई है । अपने पैतृक गाँव से बाहर प्रवास करने वाले लोग भी त्यौहार को मनाने लिए अपने अपने गाँव लौटने लगे है ।  कार्तिक अमावस्य को मनाई जाने वाली राष्ट्रीय दीपावली के ठीक एक महीने बाद मनाई जाने वाली बूढी दीवाली मंगसीर अमावस्य को मनाई जाती है ।  इस साल इस त्यौहार का मुख्य पर्व पकोडिया 14 दिसंबर को और असक्या 13 दिसंबर को मनाया जाएगा ! पकोडिया के दिन उड़द की दाल के पकोड़े और संवाले मुख्य पकवान के रूप में प्रत्येक घर में बनाये जाते है और असक्या के दिन स्थानीय उत्पाद झंगोरे के आटे से असके बनाये जाते है जिन्हे चीनी और दही के साथ खाया जाता है ! धान (साटी) से बनी चूड़ा को प्रसाद के रूप में बांटा जाता है ।  बूढी दिवाली का दूसरा दिन भुरुडी बराज के रूप में जाना जाता है इस दिन ही मुख्य होलियत होती है जिसमे भीमल की बारीक लकड़ी से होल्डे (भेलो ) जलाकर खेले जाते है ।

  इसी दिन बाबईं घास को गाँव की महिलांए काटकर लाती है और उसे बटकर लम्बी रस्सी बनाई जाती है जिसे स्थानीय भाषा में भांड कहते है हो नागदेवता  का स्वरूप मानकर स्वच्छ जल में  स्नान कराकर उसकी पूजा अर्चना की जाती है उसके बाद उसकी रस्साकसी खेली जाती है ।  भांड तोड़ने के बाद स्थानीय पुरुष और महिलाएं गाँव में आये मेहमानों के साथ अपने स्थानीय वाद्ययंत्रों ढोल -दमाऊ की थाप पर रासों एवं तांती नृत्य  करते है .  चौथे दिन गाँव के पांडव चौक में पांडव नृत्य होता है जिसमे पांडव के पसुवा अवतरित होते है ।  लेकिन धीरे -धीरे पांडव नृत्य बिलुप्त हो रहा है . और गाँव ने शहरी संस्कृति का प्रचलन बढ़ रहा है जो की हमारी पौराणिक एवं पारम्परिक संस्कृति के लिए ठीक नहीं है हमे अपनी संस्कृति एवं परम्परा को बिलुप्त होने से बचाने के लिए प्रयास करने चाहिए !!