मानवी राजपूत
मानव और वन्य जीव संघर्ष एक गम्भीर समस्या बन चुकी है। हालांकि वन्य जीवों के संरक्षण के लिए वन विभाग की भारी-भरकम मशीनरी लाखों रुपए खर्च करती है लेकिन वह भी इस गम्भीर समस्या के आगे असहाय नजर आ रही है। आए दिन शहरों में खतरनाक वन्य जीव घुस आते हैं और मनुष्यों पर हमले कर देते हैं जिससे मौतें भी होती हैं और वन्य जीवों को भी पकड़ने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। कई बार वन्य जीवों को भी जान से हाथ धोना पड़ता है। देेश की राजधानी दिल्ली की एक रिहायशी बस्ती में आमदखोर तेंदुए ने घुसकर एक दर्जन लोगों पर हमला किया। उसके हमले में पांच लोग घायल हो गए। पूरे इलाके में खौफ कायम है। इस आदमखोर तेंदुए को पकड़ने के लिए वन विभाग की टीम को काफी मेहनत करनी पड़ी। इससे पहले भी पिछले वर्ष दिसम्बर में हाई प्रोफाइल इलाके सैनिक फार्म में तेंदुए ने दहशत फैला दी थी। हालांकि कई घंटों बाद उसे दबोच लिया गया था। महानगरों में ही नहीं बल्कि उत्तराखंड और कुछ अन्य राज्यों में ऐसी घटनाएं लगातार देखने को मिल रही हैं।

अब सवाल यह है कि वन्य जीवों के शहरों में घुसने की समस्या के लिए जिम्मेदार किसे माना जाए। क्या इसके लिए केवल वन विभाग को जिम्मेदार माना जाए या फिर मानव को इसके लिए जिम्मेदार माना जाए। कोई जानवर किसी इंसान की जान का दुश्मन कब बनता है? आज क्यों दोनाें ही एक-दूसरे की बलि लेने पर अमादा हो जाते हैं? आखिर वन्य प्राणी अपने आश्रय स्थलों को छोड़ने के लिए विवश क्यों हुए? दरअसल वनों पर अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप ही वन्य जीवों के साथ मानव के संघर्ष का प्रथम कारण बना। वनों का व्यावसायिक उपयोग, उद्योग जगत का विस्तार और आधुनिक जीवनशैली तथा बाजारीकरण और नगरीय सभ्यता के विकास ने दुनिया के कोने-कोने में कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए। सड़कों का जाल ऐसे बिछा कि जंगल के बाशिंदे भोजन और आवास के लिए तरसने लगे। परिणामस्वरूप उनका पदार्पण मानव बस्तियों की ओर होने लगा। तो क्या विकासपरक नीतियां ही मानव और वन्य जीवों के संघर्ष के पीछे महत्वपूर्ण कारक है? जंगलों के दोहन के साथ सेंचुरी और नेशनल पार्क के निर्माण ने वनों के आस-पास निवास करने वाले स्थानीय निवासियों को उनके हक से वंचित किया है। जबकि यह वही स्थानीय निवासी थे जिन्होंने सदियों से बिना व्यावसायिक दोहन के हमेशा वनों का उचित उपयोग करते हुए उसके संरक्षण का भी काम किया था। विडंबना ही कहेंगे कि इस मुद्दे को सिरे से नकार दिया जाता है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले विमर्श हाशिये के समाजों की जीवनशैली को समझने में असमर्थ ही रहे हैं।

सरकार जंगलों को बचाने के लिए भले ही लाख प्रयास करे लेकिन हकीकत यह है कि वन्य क्षेत्र लगातार कम होते जा रहे हैं। जंगल काट-काट कर रिहायशी काॅलोनियां बसाई जा चुकी हैं। पर्यटन के नाम पर जंगलों को कमाई का केन्द्र बना दिया है। वन क्षेत्र में सफारी और जंगल रिजॉर्ट बना दिए गए हैं। इस सबसे वन्य जीवों की निजता का हनन हो रहा है। यही कारण है कि वन्य जीव इंसानी बस्तियों में आने लगे हैं। इतने सारे वन्य संरक्षण पार्क और सेंचूरी बन जाने के बावजूद वन्य जीवनों का हमला बढ़ता जा रहा है। हालांकि इस समस्या के कई अन्य कारण भी हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि जंगलों में शिकार की कमी और पानी की कमी भी वन्य जीवों का शहरों की तरफ आना भी कारण है। यह एक ऐसी समस्या है जो पहाड़ी राज्यों के जीवन, जीविका और समाज को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं। उत्तराखंड के गांव में रहने वाले लोग आमदखोर जानवरों के आतंक की वजह से अपने गांव छोड़कर शहरी इलाकों में बसने लगे हैं।

सबसे अधिक आतंक गुलदारों का है जो घर, आंगन और खेत-खलिहानों में धमक कर जान के खतरे का सबब बने हुए हैं। गुलदार तो आबादी वाले क्षेत्र में ऐसे घूम रहे हैं जैसे मवेशी हों। बाघ भी गांव में घुसकर हमले कर रहे हैं। कभी हाथी मेरे साथी की कहावत बहुत मशहूर थी लेकिन अब हाथी मानव के साथ नहीं रहे हैं। झारखंड, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और केरल आदि राज्यों में गजराज के हमलों में लोग मारे जा रहे हैं। वन्य जीवों के हिंसक हो जाने के भी कई कारण हैं। आमदखोर जानवर महिलाओं, बच्चों को अपना निवाला बना रहे हैं। वन विभाग इन्हें पकड़ भी लेता है लेकिन उन्हें दूसरी जगह रेलोकेट नहीं किया जाता जो एक खतरनाक प्रक्रिया है। यह भी सच है कि देश में इनका अवैध शिकार भी लगातार हो रहा है। इस गम्भीर समस्या का समाधान अब गम्भीरता से करना होगा। जब तक इनके लिए आरक्षित क्षेत्रों में इंसानी दखलंदाजी को रोका नहीं जाता, जंगलों की अंधाधुंध कटाई रोकी नहीं जाती और विकास के नाम पर विनाश की प्रक्रिया बंद नहीं की जाती तब तक वन्य जीव बनाम इंसान संघर्ष जारी रहेगा।