गिरिराज उनियाल की कलम से

कुछ जनप्रतिनिधिय आजकल फिर से बस्तियों को मालिकाना हक देने की पैरवी कर रहे हैं । जबकि माननीय नैनीताल हाईकोर्ट ने इसको गंभीरता से लिया है। चुनाव नजदीक आते ही कुछ जनप्रतिनिधियों को बस्तियों की याद आ जाती है । वे ये‌ क्यों‌ भूल जाते हैं कि ‌यह एक गंभीर विषय है, खासकर उत्तराखंड की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ , अवैध रूप से सरकारी भूमि पर कब्जा कर राज्य निवासियों के हक – हुकूकों पर डाका डालने जैसा है । कुछ नेता इन लोगों से मोटी रकम लेकर पहले‌ सरकारी जमीन पर कब्जा करवाते हैं। फिर वोट बैंक के रूप में उनका इस्तेमाल करते हैं ।

यह सिलसिला काफी समय से चल रहा है ‌ शहर‌ की अधिकांश नदियों, नालों पर ये कब्जा कर‌ बस्तियों बना लेते हैं ‌। जिससे बरसात में भारी जानमाल का नुक़सान उठाना पड़ता है । हां पुराने पट्टे धारों को जरुर मालिकाना हक मिलना चाहिए लेकिन जो कुछ साल पहले सरकारी जमीन पर कब्जा किए हुए हैं क्या उनको मालिकाना हक मिलना चाहिए सवाल यह भी खड़ा होता है । जो जनप्रतिनिधि पहले इनको बसाते हैं ,और फिर मालिकाना हक की बात कर रहे हैं । उनसे यह सवाल तो उठता है कि कभी आपने इस उत्तराखंड के बारे में भी सोचा है । इनमें कुछ जनप्रतिनिधि तो अपने को राज्य आंदोलनकारी होने का ढोल पीटते रहते हैं । ऐसे लगता है कि राज्य इन्हीं की वजह से मिला है । इनसे पूछा जाए की विधानसभा में आपने पहाड़ के मुद्दों को लेकर कितने संवेदनशील और गंभीरता दिखाई । जो हर‌ बात पर घड़ियाली आंसू बहाते हैं, लेकिन जब राज्य के निवासियों के हक की बात आती है तो वहां पर खामोश हो जाते हैं।

धर्मपुर विधानसभा की बात करें तो यहां रोहिंग्या मुसलमान और अन्य राज्यों से पिछले कुछ सालों से बड़ी मात्रा में आए मुस्लिमों को गुपचुप तरीके से बसाया जा रहा है । इसके पीछे ही राजनीतिक दलों में वोट बैंक की होड़ लगी है,पर यह राज्य की सुरक्षा के हित में कतई नहीं है । क्या इनको मालिकाना हक मिलना चाहिए। सवाल इस बात का है कि हर साल हजारों की तादाद में अवैध रूप से बस रहे लोगों का बिना सत्यापन किए , सरकारी जमीन पर कब्जा किए लोगों को मालिकाना हक़ क्यों मिलना चाहिए ।
इन सवालों के सभी जनप्रतिनिधि खामोश क्यों होते हैं???????