नैनबाग , पहाड़ न्यूज़ टीम

अगलाड़ नदी में होने वाले ऐतिहासिक राजमौण को लेकर आज नैनबाग में पांतीदारों की अहम बैठक हुई. जिसमें सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि इस वर्ष सिलवाड़ पट्टी के ( मसोन,कोटी, पाब, चिलामू,फफरोग, टटोर, जयद्वार मल्ला, जयद्वार तल्ला,बणगांव, सुरांसू, खर्क तथा खरसोन) के लोग मौण निकालेंगे। 26 जून को मौण मेला मनाने का निर्णय लिया गया। है। ऐतिहासिक राजमौण में आप सभी सादर आमंत्रित हैं।

26 जून को मौण मेला, जानिए क्या है इतिहास…

उत्तराखंड अपने रीति-रिवाजों और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। आज भी यहां कई ऐसी परंपराएं जीवित हैं, जिन्हें पढ़कर आप हैरान रह जाएंगे। जी हां इन्हीं में से एक है मौण मेला। इस मेले के तहत साल में एक बार अगलाड़ नदी में मछली पकड़ने का ऐतिहासिक उत्सव मनाया जाता है। इस बार यह मेला 26 जून को है। आइए आपको बताते हैं मौण मेले के बारे में।

मौण क्या है


मौण, टिमरू के तने की छाल को सुखाकर तैयार किया गया महीन चूर्ण है। इसका उपयोग पानी में डालकर मछली को बेहोश करने के लिए किया जाता है। टिमरू का इस्तेमाल दांतों की सफाई के अलावा और भी कई दवाओं में किया जाता है।

ऐसे तैयार किया जाता है मौण


मौण के लिए दो महीने पहले ही गांव वाले टिमरू के तनों को काटकर इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं। मेले से कुछ दिन पहले टिमरू के तनों को आग में हल्का भूनकर ओखली या घराटों में बारीक चूर्ण के रूप में इसकी छाल तैयार की जाती है।

इसलिए मनाया जाता है मौण

अगलाड़ नदी के पानी से भी खेतों की सिंचाई होती है। मछलियों को मारने के लिए नदी में डाला जाने वाला टिमरू का चूरा पानी के साथ खेतों में पहुंच जाता है और फसलों को चूहों और अन्य कीटों से बचाता है।

राजशाही से आ रही है परंपरा

इस मेले की शुरुआत टिहरी रियासत के राजा नरेंद्र शाह ने खुद अगलाड़ नदी में पहुंचकर शुरू किया था । इसे आपसी मतभेदों के कारण वर्ष 1844 में बंद कर दिया गया था। वर्ष 1949 में इसे फिर से शुरू किया गया था। राजशाही के शासनकाल के दौरान, अगलाड़ नदी के मौण के त्योहार को राजमौण उत्सव के रूप में मनाया जाता था। उस समय मेले की तिथि और स्थान रियासत के राजाओं द्वारा तय किया जाता था।

इस बार 26 जून को है मौण मैला

इस बार ऐतिहासिक पर्व मौन मेला 26 जून को मनाया जाएगा। इस बार मेले में छह से दस हजार लोगों के शामिल होने की संभावना है.

एकता का प्रतीक है मौण मेला

मौणकोट नामक स्थान से अगलाड़ नदी के जल में मौण को मिलाया जाता है। इसके बाद हजारों बच्चे, जवान और वृद्ध , नदी की धारा के किनारे मछली पकड़ने लगते हैं। यह चक्र लगभग चार किलोमीटर तक चलता है, जो नदी के मुहाने पर समाप्त होता है। विशेषज्ञों के अनुसार टिमरू का पाउडर जलीय जीवों को नुकसान नहीं पहुंचाता है। इससे मछलियां कुछ देर के लिए ही बेहोश हो जाती हैं और इस दौरान गांव वाले अपने कुंडियाड़ा, फटियाड़ा, जाल और हाथों से मछली पकड़ लेते हैं. जो मछलियां पकड़ में नहीं आतीं, वे बाद में ताजे पानी में जीवित रहती हैं।