उत्तरकाशी , PAHAAD NEWS TEAM

उत्तराखंड के इतिहास में रवाईं घाटी का अपनी सांस्कृतिक परंपरा और विरासत के लिए विशेष स्थान है. पुरोला प्रखंड में आज भी कई गांव के कारीगर पत्थरों की नक्काशी कर अपनी आजीविका चलाते हैं. लेकिन आज यह समृद्ध आजीविका का स्रोत आधुनिकता और प्रचार के अभाव में दम तोड़ रहा है। वहीं शिल्पकारों का कहना है कि समय के साथ भवनों के बदलते स्वरूप ने भी पुरोला के इस व्यवसाय को काफी हद तक प्रभावित किया है।

आधुनिकता की मार : उत्तरकाशी के पुरोला विकासखंड में मुख्य रूप से श्रीकोट, चपटाड़ी, बड़ाई गांव, धामपुर, सरनोल, बजलाडी आदि गांवों में पत्थर की नक्काशी का काम पूरा गांव करता है. ये कारीगर पत्थर की नक्काशी का काम करते हैं। यह शिल्पकार जांदरे (हथचक्की), सिलबट्टे, छोटे-छोटे पत्थर की मूर्तियां सहित मंदिरों और भवनों पर पत्थर की नक्काशी का कार्य करते हैं.
गहराया आर्थिक संकट: श्रीकोट गांव के 75 वर्षीय शिल्पकार का कहना है कि जिस समय पहाड़ों में हर जगह पत्थर और मिट्टी के भवन बन रहे थे, उस समय उनके गांव और आसपास के गांवों के कारीगरों की काफी मांग थी. . इसके साथ ही जांदरों और सिलबट्टे के लिए एक क्षेत्रीय बाजार भी था। लेकिन आज अगर मंदिरों में कहीं काम मिल जाए तो ठीक है, लेकिन इसके अलावा इन लकड़ी के शिल्पकारों के लिए कहीं भी बाजार उपलब्ध नहीं है। जिससे उनके सामने आर्थिक संकट खड़ा हो गया है।

विरासत को संरक्षित करने की जरूरत : श्रीकोट गांव के दिनेश खत्री का कहना है कि उनका परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी यह काम कर रहा है. कभी-कभी रोजगार के नाम पर मूर्ति और सिलबट्टे बिक जाते हैं। लेकिन आज तक सरकार ने इस समृद्ध विरासत को संरक्षित करने के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया है। जिससे अब नई पीढ़ी का इस अमूल्य कला से मोहभंग हो रहा है।